Monday, September 27, 2010

भारत के भूमिगत जल में घुल रहा है रेडिओएक्टीव रेडोन का जहर I

भारत के कई जगहों के भूमिगत जल में रेडिओएक्टीव रेडोन गैस के पाए जाने की वैज्ञानिक पुष्टि हुई है I
द्वारा
डा. नितीश प्रियदर्शी



भारत के बैंगलोर, मध्य प्रदेश के किओलारी- नैनपुर, पंजाब के भटिंडा एवं गुरदासपुर, उत्तराखंड का गढ़वाल, हिमाचल प्रदेश एवं दून घाटी के भूमिगत जल में रेडोन -२२२ के मिलने की वैज्ञानिक पुष्टि हुई है I

बैंगलोर शहर के भूमिगत जल में रेडोन की मात्रा सहनशीलता की सीमा ११.८३ Bq/ लीटर से ऊपर है I कहीं कहीं ये सौ गुना अधिक है I यहाँ पर रेडोन की औसत मात्रा ५५.९६ Bq/ लीटर से ११८९.३० Bq/लीटर तक पाई गई है I बैंगलोर शहर में भूमिगत जल की तुलना में सतही जल में कम रेडोन पाए गए क्योंकि वायुमंडल के संपर्क में रहने के कारण यह गैस जल से वायुमंडल में आसानी से घुल जाती है I
बैंगलोर शहर के कैंसर रोगियों में से इस वक्त 10.5 फीसदी लोग लंग कैंसर और करीब 13.5 फीसदी लोग स्टमक कैंसर से जूझ रहे हैं। जानकारों की मानें तो पानी में रेडोन की बढ़ती मात्रा का कारण जमीन में मौजूद ग्रेनाइट है।

मध्य प्रदेश के मांडला के किओलारी-नैनपुर जगह के भूमिगत जल में रेडोन के साथ युरेनियम की भी मात्रा पाई गई है I युरेनियम की औसत मात्रा १३ पि.पि.बी. (पार्ट्स पर बिलियन ) से ४,५०० पि.पि.बी. तक पाई गई है I यहाँ के १३ गाँव में युरेनियम की मात्रा खतरनाक स्तिथि को पार कर चुकी है I ६ गाँव में रेडोन की औसत मात्रा ३४,१५१ Bq/m3 से १,१४६,०७५ Bq/m3 तक पाई गई है. इन सारे जगहों को काफी अधिक मात्रा के बैकग्राउंड रेडीऐशन वाला स्थान घोषित किया गया है I
पंजाब के कई क्षेत्रों, विशेषकर मालवा इलाके में भूजल और पेयजल में यूरेनियम पाये जाने की पुष्टि हो गई है। इस खतरनाक “भारी धातु” (Heavy Metal) के कारण पंजाब में छोटे-छोटे बच्चों को दिमागी सिकुड़न और अन्य विभिन्न तरह की जानलेवा बीमारियों का सामना करना पड़ रहा है।

पंजाब के भटिंडा प्रदेश के भूमिगत जल में रेडोन की मात्रा पाई गई है I भटिंडा शहर में रेडोन की मात्रा गुरदासपुर शहर से कम है I भटिंडा के भूमिगत जल में रेडोन की मात्रा ३.६ Bq/लीटर से ३.८ Bq/लीटर है.
एक अन्य शोध के अनुसार भटिण्डा जिले के 24 गाँवों में किये गये अध्ययन के मुताबिक कम से कम आठ गाँवों में पीने के पानी में यूरेनियम और रेडॉन की मात्रा 400 Bq/L के सुरक्षित स्तर से कई गुना अधिक है, इनमें संगत मंडी, मुल्तानिया, मुकन्द सिंह नगर, दान सिंहवाला, आबलू, मेहमा स्वाई, माल्की कल्याणी और भुन्दर शामिल हैं।
1999 से इस क्षेत्र में कैंसर के कारण हुई मौतों में बढ़ोतरी हुई है और तात्कालिक तौर पर इसका कारण यूरेनियम और रेडॉन ही लगता है। जिन गाँवों में कैंसर की वजह से अधिकतम और लगातार मौतें हो रही हैं, वहाँ के पानी के नमूनों में यूरेनियम नामक रेडियोएक्टिव पदार्थ की भारी मात्रा पाई गई है।
हरियाणा के भिवानी जिले और साथ लगे हुए भटिण्डा जिले में स्थित तुसाम पहाड़ियों की रेडियोएक्टिव ग्रेनाईट चट्टानों के कारण इस क्षेत्र के भूजल में यूरेनियम और रेडॉन की अधिकता पाये जाने की सम्भावना भी जताई गई है।
फरीदकोट के 149 बच्चों के बालों के नमूनों में यूरेनियम सहित अन्य सभी हेवी मेटल, सुरक्षित मानकों से बहुत अधिक पाये गये हैं। यह निष्कर्ष जर्मनी की प्रख्यात लेबोरेटरी माइक्रोट्रेस मिनरल लैब द्वारा पंजाब के बच्चों के बालों के नमूनों के गहन परीक्षण के पश्चात सामने आया है। मस्तिष्क की विभिन्न गम्भीर बीमारियों से ग्रस्त लगभग 80% बच्चों के बालों में घातक रेडियोएक्टिव पदार्थ यूरेनियम की पुष्टि हुई है और इसका कारण भूजल और पेयजल में यूरेनियम का होना माना जा रहा है।

बाह्य हिमालय प्रदेश के दून घाटी में रेडोन की मात्रा अधिक पाई गई है. यहाँ पार रेडोन की मात्रा २५- ९२ Bq/लीटर है I
हिमाचल प्रदेश के कुल्लू के कासोल प्रदेश प्रदेश में भी रेडोन के अधिक मात्रा में होने की सुचना है I यहाँ के भूमिगत जल में औसत युरेनियम की मात्रा ३७.४० पि.पि.बी.
है I
कर्नाटक के वराही एवं मार्कंडेय नदी प्रदेशों के भूमिगत जल में रेडोन की मात्रा पाई गई
है I
वायुमंडल की तुलना में भूमिगत जल में रेडोन की मात्रा अधिक होती है I रेडोन-२२२, रेडियम - २२६ के विघटन के फलस्वरूप बनता है I जिन चट्टानों में युरेनियम की मात्रा अधिक होगी वहां के भूमिगत जलों में रेडोन की मात्रा अधिक होगी I इन चट्टानों में प्रमुख हैं ग्रेनाइट, पेग्मैटाइट एवं दुसरे अम्लीय चट्टान I
भारत में जहाँ पर भी रेडोन पाया गया है वहां पर इन चट्टानों की बहुलता है I रेडोन एक जहरीला एवं रेडियोएक्टिव गैस है I इसके शारीर में पहुँचने से शारीर को हानी होती है I खासकर इसके अल्फा विकिरण से I जिस घर के भूमिगत जल में रेडोन की मात्रा मौजूद है वहां पर स्तिथि और भी भयावह हो जाती है I एक तो जल से और दूसरा वही रेडोन जब जल के माध्यम से वातावरण में आ जाता है और जब शारीर में प्रवेश करता है तो शारीर को दुगुना हानी पहुँचाता है I ये हवा के साथ मिलकर फेफड़े और पानी के साथ मिलकर पेट पर बेहद बुरा असर डालते हैं।

Monday, September 20, 2010

Radon in groundwater from India- a brief report.

There have also been a number of reports of the presence of dissolved radon in groundwater from India.
by
Dr. Nitish Priyadarshi



Presence of high levels of Radon (222 Rn) has been reported from groundwater in Bangalore city, Keolari-Nainpur area, Seoni-Mandla district in Madhya Pradesh, Bathinda , Gurdaspur, Garhwal, Himachal Pradesh and Siwalik Himalayas and underground waters of the Doon valley in India.

To ascertain the ground reality and the nature of the hazards, if any, a study was conducted by the Central Ground Water Board, Bangalore in and around Bangalore city. The analytical results of all the groundwater samples collected from the gneissic and granitic rocks shows Radon concentration is above the permissible limit of 11.83 Bq/l and at places the concentration is as high as hundred times. The radon gas is occurring in the groundwater of the area ranging from 55.96 Bq/l to 1189.30 Bq/l plus or minus error values.

There is no relation between the radon concentration and the depth of bore wells. However it is observed that the formation waters from very shallow aquifers are having the least concentration of radon due to its easy loss to the atmosphere. Surface water samples are having negligible quantity of radon, which is well within the safe limits. It is observed that there is a good correlation between the presence of high radon content and the presence of granitic rocks.

Higher concentration of uranium and radon in groundwater of Keolari-Nainpur area have been observed during an exploration programmes for uranium. The average value of dissolved uranium in bore well waters is 13 ppb (parts per billion). Considering 200 ppb as a safe limit, it has been possible to delineate several pockets, where groundwater is contaminated by very high uranium ( 217- 4,500 ppb in 13 villages) and radon (34,151 Bq/m3 to 1,146,075 Bq/m3 in 6 villages). These pockets, therefore, have been classified as high background radiation area on the basis of (a) long lived alpha radioactivity through ingestion of more than 2 Bq/day (b) 222Rn concentration on potable water exceeding 200 Bq/m3.

High radon concentration has been reported in river waters of Garhwal and Siwalik
Himalayas and underground waters of the Doon valley. Extremely high uranium content was reported in groundwater of Bathinda district in the Punjab state. The radon concentrations have been measured in all those areas where high uranium content was
reported in groundwater. The average radon concentration in hand-pump drawn water is 3.8 Bq /l and in tube-well drawn water, its value is 3.6 Bq /l. Radon values for Bathinda district are lower than the corresponding values for Gurdaspur district. The occurrence of radon in groundwater is reasonably related to the uranium content of the bedrocks and it can easily enter into the interacting groundwater by the effect of lithostatic pressure. Relatively high concentrations of radon (25–92 Bq/l) were reported for groundwater from Quaternary alluvial gravels associated with uranium-rich sediments in the Doon Valley of the Outer Himalaya.


Radon activities in groundwater samples in different districts of Himachal Pradesh varies from 0.3 ± 0.2 to 792 ± 9 Bq /l. The maximum value of radon concentration is found in groundwater of thermal springs and the minimum value in a water tank. The highest value of radon concentration is recorded in thermal spring (no. III) at Kasol,
792 ± 9 Bq/ l which is in the Kullu district of Himachal Pradesh. The uranium content of water in the Kasol thermal springs was found to be 37.40 ± 0.41 ppb. The radon
anomalies are related to Shat-Chinnjra and Kasol mineralisation. The radon concentration at Chinnjra also shows a high value of 144 ± 4 Bq/ l in natural spring (bauli) as compared to other natural springs at Takrer and Bradha in the same area.

The study was also carried out in Varahi and Markandeya river basins, Karnataka State, India. The measured 222Rn activities in 16 groundwater samples of Varahi command area ranged between 0.2 ± 0.4 and 10.1 ± 1.7 Bq/ l with an average value of 2.07 ± 0.84 Bq /l. In contrast, the recorded 222Rn activities in 14 groundwater samples of Markandeya command area found to vary from 2.21 ± 1.66 to 27.3 ± 0.787 Bq/ l with an average value of 9.30 ± 1.45 Bq /l.

Despite its known health effects, no WHO guideline value exists for radon in drinking water because of the difficulties in defining a regionally-applicable value given the relative importance of inhalation compared to ingestion from drinking water. Radon concentrations in groundwater also change significantly on abstraction, aeration, storage and boiling.

Radon is essentially chemically inert, but radioactive (www. chemistrydaily.com). It is the heaviest noble gas at room temperature. At standard temperature and pressure radon is colorless. Natural radon concentrations in the Earth’s atmosphere are very low, the water in contact with the atmosphere will continually lose radon by volatilization, while groundwater has a higher concentration of 222 Rn than surface water. Likewise, the saturated zone of soil frequently has higher radon content than the unsaturated zone due to the diffusional losses to the atmosphere.

Radioactive substances in ground water, such as radium, uranium and thorium, occur naturally. They are present at least to some extent in almost all rocks and radium, in particular, dissolves more readily into ground water in contact with sands or soils. The acidity of the water, which may be increased by the presence of elevated levels of nitrates associated with agricultural land use, is believed to increase the amount of radium that dissolves into ground water from contact with sands and soils.

There are twenty known isotopes of radon. The most stable isotope is radon-222 which is decay product ( daughter product) of radium-226, has a half life of 3.823 days and emits radioactive alpha particles. Radon-220 is a natural decay product of thorium and is called thoron. It has a half life of 55.6 seconds and also emits alpha rays. Radon-219 as derived from actinium, is called action and is an alpha emitter having a half life of 3.96 seconds.

Radon being the daughter product of the uranium is expected in higher levels in rocks containing uranium. The studies indicate the granits, pegmatites and other acidic rocks are generally rich in uranium compared to other rocks types. When groundwater percolates through rocks rich in uranium, it is expected to contain high level of radon gas in groundwater.

Radon is a carcinogenic gas and is radioactive. It is hazardous to inhale this element, since it emits alpha particles. Radon in water may therefore present dual pathways of exposure for individuals through drinking water and inhalation of air containing radon released from groundwater.

Its solid decay products, and their respective daughter products, tend to form fine dust, which can easily enter the air passage and become permanently stuck to lung tissue, causing heavy localized exposure. Build-up of radon in homes has also been a more recent health concerns and many lung cancer cases are attributed to radon exposure each year. Radon escalates health hazard to smokers.

Reference:

Hunse, T.M., Najeeb, K.Md., Rajarajan, K. and Muthukkannan, M., 2010. Presence of Radon in groundwater in parts of Bangalore. Jour. Geol. Soc. of India, v.75, pp. 704-708.

Sinha, D.K., Shrivastava, P.K., Hansoti, S.K. and Sharma, P.K., 1997. Uranium and radon concentration in groundwater of Deccan Trap country and environmental hazard in Keolari-Nainpur area, Seoni-Mandla district, Madhya Pradesh. Geol. Surv. Ind. Spl. Pub. v.2, no.48, pp. 115-121.

http://www.nj.gov/dep/rpp/download/radwater.pdf
http://www.rsc.org/delivery/_ArticleLinking/DisplayArticleForFree.cfm?doi=b209096c&JournalCode=EM
http://www.wateraid.org/documents/nindia.pdf
http://cat.inist.fr/?aModele=afficheN&cpsidt=22900183

Friday, September 10, 2010

भारत में प्राकृतिक आपदाएं - कितने तैयार हैं हम ?

देश के २२ राज्यों को मल्टीडिजास्टर प्रोन यानि जहाँ की एक से अधिक प्राकृतिक आपदाएं आ सकती हैं, माना गया है I
द्वारा
डा. नितीश प्रियदर्शी





विश्व में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है I पहले दक्षिण पूर्व एशिया सुनामी, अमरीका में आये तूफ़ान, कटरीना, विल्मा, मुंबई की बाढ़, पाकिस्तान एवं जम्मू कश्मीर में आये विनाशकारी भूकंप , बिहार में कोसी नदी की बाढ़ और अब पाकिस्तान में बाढ़, दिल्ली, गुजरात, पंजाब, लेह, उत्तराखंड, राजस्थान इत्यादि में बाढ़ I झारखण्ड एवं बिहार में सुखा ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है की केवल सुचना ही आपदाओं से निपट पाने के लिये पर्याप्त नहीं है I इनसे निपटने के लिये बहुत कुछ किया जाना बाकि है I
भारतीय उप महाद्वीप का लगभग सारा का सारा हिस्सा कभी न कभी प्राकृतिक आपदाओं की चपेट में आ ही जाते हैं या आ सकते हैं लेकिन इनसे निपटने के लिये जिस प्रकार से शार्ट टर्म और लॉन्ग टर्म कदम उठाये जाने की जरुरत हे उनके बारे में मामले सरकारी फाइलों में बंद हैं I भारतीय उप महाद्वीप में आनेवाली प्राकृतिक आपदाओं में प्रमुख हैं सूखा, बाढ़, समुद्री तूफान, भूकंप, भूमि धसान,जंगलों एवं कोयले के खदानों में लगी आग I देश के २२ राज्यों को मल्टीडिजास्टर प्रोन यानि जहाँ की एक से अधिक प्राकृतिक आपदाएं आ सकती हैं, माना गया है I कश्मीर से कन्याकुमारी एवं भुज से सिलचर तक फैले भूभाग में कहीं न कहीं सूखा तो कहीं बाढ़ की स्तिथि लगातार बनी रहती है I
विश्व बैंक ने आपदा से जुड़े जोखिम के लिहाज से भारत को १७० देशों में ३६ वें स्थान पर रखा है 1 विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारतीय उप-महाद्वीप प्राकृतिक आपदा के लिहाज से सबसे संवेदनशील है। रिपोर्ट के अनुसार भारत के ६३३ जिलों में प्राकृतिक आपदाओं के लिहाज से अति संवेदनशील जिले हैं। बंगाल की खाड़ी से लगे क्षेत्रों में चक्रवात, हिमालई क्षेत्रों में भूकंप, तो देश के अन्य क्षेत्रों में मानसून के समय बाढ़ जैसी आपदा होना आम बात है। रिपोर्ट में कहा गया है कि बाढ़ का खतरा पहले अक्सर गंगा की तराई बेल्ट में ही रहता था लेकिन अब मिट्टी की गुणवत्ता घटने तथा कमजोर ढांचागत व्यवस्था के कारण इसका दायरा बढ़ गया है। पिछले पांच दशकों से राजस्थान, गुजरात, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु जैसे राज्य भी इसकी चपेट में आने लगे हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि मिट्टी की गुणवत्ता घटने और अन्य कई बदलावों के कारण अब बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा तेजी से फैलने लगी है।

आपदा प्रबंधन पर हम चर्चा तो करतें है किन्तु कोई ठोस कदम नहीं उठा पाते I यदि हम उठाते भी हैं तो झटके से, एवं फिर उन्हे अगली आपदा के आने तक भुला दिया जाता है I जब दुबारा प्राकृतिक आपदा का सामना होता है तो सारी व्यवस्थाएँ धरी की धरी रह जाती हैं I जैसे मुंबई की बाढ़, लेह एवं उत्तराखंड में बादल का फटना, कोसी नदी का बाढ़ इत्यादि I
सुनामी तथा मुंबई की बाढ़ में तो हमारी सारी संचार प्रणाली एवं सुचना तंत्र ही फेल हो गया था I सुनामी ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया की हम इस प्रकार की आपदाओं से अपनों की रक्षा करने एवं इस प्रकार की स्तिथि से निपटने के लिये कतई तैयार नहीं थे I
भारत में कई कोयले की खानें ऐसे है जहाँ पहले भी कई हादसे हो चुकें हैं तथा आगे भी होने का खतरा बना रहता है लेकिन आज तक हम इन्हे रोकने या इसकी सुचना पहले देने में विफल हैं I
विश्व की जलवायु बादल रही है I पृथ्वी गर्म हो रही है I इसका असर विश्व के साथ साथ भारत पर भी अपना प्रभाव दिखा रहा है, जो आने वाले वर्षों में अनेक प्रकार की आपदाओं के आगमन का अशुभ संकेत दे रहा है I
यदि हम भूकंप को ही लें तो कुछ तथ्य चोकाने वाले हैं. यूनेस्को के अनुसार विश्व में प्रतिवर्ष ६०,००० भूकंप आते हैं I भारत में भी पिछले १०० वर्षों कई विनाशकारी भूकंप आ चुकें हैं जिनमे एक लाख से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है I भारत के कई नए प्रदेश भूकंप से प्रभावित होने वाले प्रदेशों मे आ गए जो पहले नहीं थे I आज अगर दिल्ली अथवा मुंबई अथवा बिहार या उत्तर प्रदेश के किसी घने आबादी वाले स्थान पर ५ या उससे अधिक तीव्रता वाला भूकंप आता है तो क्या हम तैयार हैं? वैसे भी इन स्थानों पर काफी दिनों से कोई भूकंपीय हलचल नहीं हुआ है I ये स्थान सिस्मिक जोन में भी आता है I

भारत में और भी प्राकृतिक आपदाएं है जिनका जिक्र कभी कभार ही होता है जैसे आसमान से बिजली का गिरना , ओलावृष्टि , डेंगू, मलेरिया, इत्यादि I इनसे प्रति वर्ष हजारों लोग प्रभावित होतें हैं I झारखण्ड एवं बिहार मिलाकर इस वर्ष आसमान से बिजली गिरने से लगभग २०० लोगों की आकाल मृत्यु हो चुकी है जिनमे बच्चों तथा महिलाओं की संख्या ज्यादा है I पूर्वी उत्तर प्रदेश में हर वर्ष कई बच्चे रहस्यमई बीमारी से ग्रसित हो जाते है I इस तरह हर वर्ष कई लोग प्राकृतिक आपदाओं के चलते आकाल मृत्यु को प्राप्त होते है I
भारत प्राकृतिक विविधता वाला देश है अतः आपदा प्रबंधन निश्चय ही एक महत्वपूर्ण चुनौती है I

Wednesday, September 8, 2010

Geobotanical methods for prospecting uranium deposits.


Plants can also help us in finding uranium.
by
Dr. Nitish Priyadarshi
Fig. Aster Venusta
Name of the plant in the figure below is Astraqualus sp.

Geobotanical methods of prospecting involve the use of vegetation for identification of the nature and properties of the substrate. Paradoxically, these methods are among the easiest to execute and yet the most difficult to interpret of all the methods of exploration available at the present time. In terms of execution, the basic requirement is merely a pair of human eyes; but in the interpretation of the visual (or photographic) image, some knowledge is required of a number of different disciplines such as biochemistry, botany, chemistry, ecology, geology, and plant physiology.

Geobotanical methods of prospecting are based on the visual observation and identification of vegetation or plant cover that may reveal the presence of a specific type of sub-surface mineralization. In this method, it is presumed that a particular variety of plant species is an indicator of a sub-surface uranium molecules. In recent years, geobotanical methods have become useful in the identification of uranium- ore deposits particularly in areas of dense vegetation.

The method dates back to the eight or ninth century, when the Chinese had observed the association of certain plant species with mineral deposits. In the early nineteenth century, the Russian geologist, Karpinsky observed that different plants or plant communities could be indicators of rock formations and that the characteristics of the plants of an area could be used to decipher the geology of the area. The method has evolved over the years and now more than a hundred species have been recognized as indicators of the presence of a number of elements, including ore metals.

Two distinct approaches to geobotanical prospecting for uranium have been developed to cope with specific problems of exploration. The first method is based upon the presence of uranium in all plants in small but measurable amounts. It has been observed that the uranium content of plants rooted in mineralized ground is detectably higher than the uranium content of plants rooted in unmineralized ground. Plant ash is analyzed directly for the determination of uranium content. The uranium content of the ash of plants growing above unmineralized formations is generally less than 1 ppm, whereas that of the plants rooted in ore bodies contain several parts per million (ppm). This technique helps in the broad outlining of mineralized areas.

The second method involves mapping the distribution of certain indicator plants growing in ecologically favourable areas. A plant may be used as an indicator, provided it is established that its growth is controlled by certain factors which are related to the chemistry of the ore deposit. The sandstone type of uranium deposit contains an appreciable amount of selenium and sulphur. The distribution pattern of plants, which require one of these elements for normal growth, may indicate favourable ground for sub-surface uranium mineralization. Plant morphology and physiology are profoundly influenced by the chemical composition of sub-surface ore bodies and groundwater regime.

This method has been used in the USA for locating sandstone type of uranium deposits, particularly in areas where surface expression is lacking. Astragalus pattersoni, which thrives on the direct intake of selenium from ore bodies located up to a depth of 75 feet, was identified as one of the indicator plants for uranium.

Prospecting by both plant analysis and indicator plant mapping in widely separated areas of the Colorado plateau has shown a positive correlation between botanically favourable ground and major ore deposits.

Geobotanical surveys have been carried out in the Satpura-Gondwana basin of Madhya Pradesh and the foot hills of the Himalayas to demarcate mineralized (uranium) sandstone facies. Surveys conducted in the Kangoo basin of Hamirpur district in Himachal Pradesh revealed uranium values in plant ash samples ranging from 4.3 ppm to 96 ppm. Two- fern plants belonging to Adiantum venustum analyzed uranium values of 194 and 634 ppm respectively.

Perhaps the most obvious of all plant mutations is that of changes in the colour of the flowers. Colour changes in flowers are usually the result of either radioactivity or of the presence of certain elements in the soils.

Metal ions as well as radioactivity can affect the colour of flowers. The gardener’s trick of adding iron or aluminium to red hydrangeas to turn them blue is of course well known. The theory behind such colour changes is interesting and may have bearing on mineral exploration.

The majority of flower colours are produced by a surprisingly small number of pigments. Apart from Carotenoids, which are important in yellow and orange flowers, it is mainly the anthocyanins that are responsible for the colour range from orange to deep blue. It was suggested that in the absence of certain metals, the anthocyanins for red oxonium salts which become blue when they are complexed with excessive amounts of iron, aluminium, or other elements.

Besides iron and aluminium, other elements such as chromium and uranium can form stable complexes with anthocyanins. It is therefore possible that excessive amounts of some of these metals could produce a blue tint in flowers that are normally red or pink, and this could be useful field guide in prospecting.

Unusual and unpredictable changes of form are produced by radioactivity. The first result of mild doses of radioactivity is a stimulatory effect on the vegetation. After the nuclear explosion at Hiroshima, exceptional yields of various crops were obtained.

Fortunately, however, natural radiation is never as high as that encountered at Hiroshima in 1945 and levels normally encountered are therefore seldom sufficient to produce an obvious stimulatory effect on vegetation. There is, however, ample evidence that even fairly low levels of radiation can produce morphological changes in plants over a prolonged period. Variations was found in fruit of the bog bilberry ( vaccinium uliginosum) growing in a radioactive area at Great Bear Lake in Canada.

Plants are the only parts of the prospecting prism which extend through several of the layers simultaneously. It is claimed that the main advantage of biogeochemical prospecting compared with other geochemical methods lies in its power of penetration through a non mineralized over burden.

Reference:

Brooks, R.R., 1972. Geobotany and biogeochemistry in mineral exploration. Harper and Row publishers, New York.

Virnave, S.N. 1999. Nuclear geology and atomic mineral resources. Bharati Bhavan, Patna.